पर्व
चकाचौंध , रंग-बिरंगी रौशनियों से,
पट गयी सड़के, सज गए भव्य पंडाल ,
उनके आगे लगी लम्बी-सी कतार,
दौड़ती-भागती भीड़ , लेकर,
अपने असंख्य , अपूर्ण ,
हर पल में बढती जाती ,
कामनाओं का अम्बार .
टेकने माथा माँ के दरबार ,
फूल, फल ,मिस्ठान.
का लेकर चढ़ावा,
जीवन से असंतुष्ट ,
और धन पाने को इच्छुक ,
चले हैं देवी को करने संतुष्ट .
इस उम्मीद में कि.
माँ करेंगी उनका उद्धार,
बरसे देवी की कृपा अपार,
कर रहे है ,मंत्रोच्चार ,
अपराधबोध नहीं ,
सुप्त-आत्माएं ,पर
झुका रहे हैं अपना शरीर,
माँ के चरणों में बार -बार.
दान करने की भी ,
होड़-सी लग गयी हैं,
कोई सौ,कोई हज़ार,
ज्यादा दान , ज्यादा कृपा ,
जैसे हो कोई व्यापार,
दान के असली अर्थ से ,
नहीं है कोई सरोकार .
कुछ हीं दिनों में देवी,
की मूर्ति का होगा विसर्जन,
ये आडम्बर होगा खत्म ,
अपनी अन्दर की श्रध्दा ,भक्ति
को तो , बहुत पहले हीं,
कर चुके हैं विसर्जित ,
शून्य की ओर बढ़ता जीवन ,
फैला हुआ है, हर तरफ, लोभ,
काम ,वासना , का अन्धकार.
एक पर्व खत्म होगा ,
तो फिर शुरू होगा दूसरा,
निराकार शक्ति , को ,
फिर से लुभाने को ,
उसे आकर दे, मूर्ति ,
बनाकर , फिर होगी ,
उसकी अराधना .
अपनी जीवन -साधना ,
में जो हो चुके असफल.
करेंगे शक्ति की साधना.
~deeps
Your writings on social issues are fascinating...
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