Saturday 10 September 2011

Tum......



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कुछ अजीब-सी ये दुनिया अब  लगने लगी है, 
इन हवाओं में अब मुझे घुटन-सी होने लगी है.
इन रस्मों-रिवाजों से मुझे डर सा लगने लगा है,
भीड़ में खुद से ही अनजान मैं होने लगी.

पैरों  में मेरी  बेड़ियाँ  डालके ,
पूछते  हैं यूँ बैठी  क्यूँ हो  तुम ?
खिड़की -दरवाज़े  खुद बंद  करके,
पूछते हैं , अँधेरे  में क्यों  बैठी हो तुम?


आँखों से मेरी नींद  छिनकर. 
पूछते हैं. क्या ख्वाब देखा तुमने ?
मेरी सोच .मेरे शब्दों को जकड कर,
पूछते हैं, क्यूँ हो इतनी गुमसुम?


कभी मुझे समझने की कोशिश  ही नहीं की ,
               और  पूछते हैं , अलग -सी क्यूँ हो तुम?                
आखों को अश्कों का तोहफा  देकर, 
पूछते हैं  क्यों उदास  हो तुम?

मुस्कुराने  की वजह  न हो पर, 
कहेंगे  जरा  मुस्कुराओ  तुम.
अपने विचारों को हर बार मुझपे थोपकर ,
पूछते हैं, खुल के क्यों नहीं जीती तुम?

सच  अब मैं, मैं नहीं,बस हूँ वही तुम,
मुझमें से मैं जाने कब हो गयी कहीं गुम.

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