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कुछ अजीब-सी ये दुनिया अब लगने लगी है,
इन हवाओं में अब मुझे घुटन-सी होने लगी है.
इन रस्मों-रिवाजों से मुझे डर सा लगने लगा है,
भीड़ में खुद से ही अनजान मैं होने लगी.
पैरों में मेरी बेड़ियाँ डालके ,
पूछते हैं यूँ बैठी क्यूँ हो तुम ?
खिड़की -दरवाज़े खुद बंद करके,
पूछते हैं , अँधेरे में क्यों बैठी हो तुम?
आँखों से मेरी नींद छिनकर.
पूछते हैं. क्या ख्वाब देखा तुमने ?
मेरी सोच .मेरे शब्दों को जकड कर,
पूछते हैं, क्यूँ हो इतनी गुमसुम?
आँखों से मेरी नींद छिनकर.
पूछते हैं. क्या ख्वाब देखा तुमने ?
मेरी सोच .मेरे शब्दों को जकड कर,
पूछते हैं, क्यूँ हो इतनी गुमसुम?
कभी मुझे समझने की कोशिश ही नहीं की ,
और पूछते हैं , अलग -सी क्यूँ हो तुम?
आखों को अश्कों का तोहफा देकर,
पूछते हैं क्यों उदास हो तुम?
मुस्कुराने की वजह न हो पर,
कहेंगे जरा मुस्कुराओ तुम.
अपने विचारों को हर बार मुझपे थोपकर ,
पूछते हैं, खुल के क्यों नहीं जीती तुम?
सच अब मैं, मैं नहीं,बस हूँ वही तुम,
मुझमें से मैं जाने कब हो गयी कहीं गुम.
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